अच्छे से तैयारी की, मन का कॉलेज भी मिला, डिग्री भी पूरी कि, मगर अब नौकरी का क्या ?

अशिक्षा ऐसे ही देश में बढ़ती जा रही है, देश के बड़े-बड़े कॉलेज और यूनिवर्सिटी में बच्चे सिर्फ डिग्रियां लेकर बाहर निकल रहे हैं। मां-बाप की सारी कमाई स्वाहा कर के बच्चे डिग्री लेकर भी सड़कों पर यूं ही घूम रहे हैं।

अच्छे से तैयारी की, मन का कॉलेज भी मिला, डिग्री भी पूरी कि, मगर अब नौकरी का क्या ?



यह सवाल लगभग आज हर युवा के मन में उत्पन्न हो रहा है कि समसामयिक वैश्विक घटनाओं को देखते हुए भारत को उन्नति की राह पर चलना चाहिए था, चीन पर हो रहे वैश्विक दबावो का फायदा भारत को मिलना चाहिए था, बेरोजगारी और महंगाई घटनी चाहिए थी। मगर ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है। महंगाई अपने चरम सीमा पर है, नींबू से लेकर प्याज और टमाटर से लेकर सब्जी सब कुछ महंगा हो चला है। घर खरीदना हो या कार या फिर इलेक्ट्रॉनिक एसेसरीज, इनमें से कुछ भी खरीदना अब सपना सा लगता है। 

विगत 2 वर्षों में भारत को जो फायदा उठाना चाहिए था कोरोना वायरस के बाद वो उठा नहीं पाया। जिसका परिणाम है कि आज पूरे भारत में बेरोजगारी अपने उच्चतम शिखर पर पहुंच चुकी है। रुपए के सामने डॉलर का यू मजबूत होना भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। जो भारत 5 ट्रिलियन इकॉनमी का सपना देखता हो, उसके मुद्रा का यू लुढ़कना बेहद शर्मनाक है। अशिक्षा ऐसे ही देश में बढ़ती जा रही है, देश के बड़े-बड़े कॉलेज और यूनिवर्सिटी में बच्चे सिर्फ डिग्रियां लेकर बाहर निकल रहे हैं। मां-बाप की सारी कमाई स्वाहा कर के बच्चे डिग्री लेकर भी सड़कों पर यूं ही घूम रहे हैं। पीएचडी और एमबीए फोल्डर बच्चे भी अब क्लर्क और चपरासी की भर्तियों में शामिल हो रहे हैं। जिससे यह पता चलता है कि भारत बेरोजगारी के किस दौर से गुजर रहा है। भारतीय मीडिया सिंहासन के तलवे चाटने में लगी हुई है। 

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स जहां 180 देशों के बीच भारत ने डेढ़ सौ बा स्थान प्राप्त किया है यह काफी है दर्शाने के लिए मीडिया किस तरह सरकार के दबाव में काम कर रही है। और सिर्फ मीडिया ही नहीं पूरा का पूरा सिस्टम वर्तमान सरकार को भारत की सर्वश्रेष्ठ सरकार घोषित करने में लग चुकी है। ऐसे में किसी का इस मुद्दे पर बोलना और सरकार पर प्रश्नचिन्ह उठाना सामान्य नहीं दिखता है। रही बात स्वास्थ्य विभाग की तो वह कोविड-19 के दूसरे वेव ने भारत के स्वास्थ्य विभाग की पोल दुनिया के सामने पहले ही खोल दी है। कितने ही मौतें ऑक्सीजन और दवाइयों के अभाव में हो गई। 
आज भारत दुनिया में सबसे महंगा एलपीजी बेचने वाला देश बन गया। विश्व में सबसे महंगा पेट्रोल,डीजल और सीएनजी बेचने में भारत का स्थान तीसरा है। खाद्य तेलों के दाम भी बहुत बढ़ चुके हैं और तो और अब गेहूं और चावल के भी दाम बढ़ने लगे हैं। मतलब अब नागरिकों के जरूरी वस्तुओं के उपलब्धता पर प्रश्न चिन्ह लगने वाले। और रही सही कसर रूस और यूक्रेन के बीच हो रही जंग ने पूरी कर दी। एक देश के तौर पे हमें यह मंथन करना होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था इतनी गत में क्यों जा रही है? हम से बेहद ही छोटा देश जो कि बिहार के आकार का है, बांग्लादेश उसका मुद्रा हमारे मुद्र से मजबूत हो रहा है और कल कारखाने वहां पर उन्नति कर रहे हैं।

 वैसे में भारत को सोचना होगा कि सिर्फ खोखले वादे और बेशुमार विदेशी यात्राओं से देश का भला होगा या फिर धरातल पर उतर कर काम करने से, क्योंकि छात्र विश्वविद्यालय में से निकल कर सड़कों की खाक छान-छान कर एक ही सवाल कर रहे हैं कि क्या हमें नौकरी मिलेगी?? और यह सवाल आज की दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण सवाल है। बडे-बड़े यूनिवर्सिटी कॉलेजों से मोटी मोटी डिग्रियां लेकर भी आज के युवा असहाय प्रतीत होते हैं। 
हमारी बात हरियाणा के एक विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में काम कर रहे डॉ सुमित सरोहा से हुई तो उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालयों में शिक्षक भी परेशान है क्योंकि इस समय छात्र घोर निराशा की ओर बढ़ रहे हैं। नौकरी की अभाव उनके मुख्य मंडल पर दिखती है और बच्चे उनसे सवाल करते हैं कि "यह पढ़ लेंगे तो क्या हमें नौकरी मिलेगी? आगे डॉक्टर सरोहा बताते हैं कि विश्वविद्यालयों की डिग्रियां सिर्फ शोकेस में रखने के लिए नहीं होती, अपितु नौकरी और आजीविका के लिए होती है। जो कि वर्तमान सरकार देने में विफल रही हैं। बिहार की मशहूर शिक्षाविद् डॉ माधुरी सिंह बताती हैं कि सरकारे सिर्फ लंबी योजनाओं पर काम कर रही है जबकि उसे शिक्षा ,रोजगार और स्वास्थ्य पर पहले काम करना चाहिए।


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